
कल एक ख़्वाब देखा
कल को दफ़न कर अपने
दो गज ज़मीं में यहीं- कहीं….
आने वाले सुनहरे कल की ताबीर
उसी ज़मीं पर लिखी
काँटें वो जहाँ गाढ़ दिये
हमें जख़्मी करने वाले
वही वो बसंती बहारों के
पौधे लगाये…..
लड़खड़ाते पैरों से नापी थी जो ज़मीं
हल्की धूल से ही वो पट गये थे
जो निशां पैरों के मेरे
वहीं अपने पैरों को मजबूती से जमाना है
ज़माने के हर तंज को हराना है….
अपने सपनों के ब्लूप्रिंट को
हकीकत का महल दो महला में बदलना है
हौषलों की नींव डाल
उसकी ऊँची दिवारों पर
अपने नाम की तख़्ती लगानी है
उसकी छत पर झूमर खुशियों का टाँग
सूकुन के बिस्तर पर अपना चाँद निहारना है

2 responses to ““ब्लूप्रिंट” सपनों का (कविता)2”
सुंदर भाव।
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धन्यवाद🙏
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